जानिये
दलाईलामा की सच्चाई
डॉ
संतोष राय
दलाई
लामा जिन्हें बौद्ध सम्प्रदाय का एक धड़ा अपना गुरु या लामा मानता है और उन्हें
शान्ति के प्रयासों के लिए पश्चिमी देशों के समर्थन से नोबल पुरस्कार भी मिल चुका
है । दलाई लामा को आज पूरे जगत में एक विशेष सम्मान भी प्राप्त हो चुका है । चूँकि
लेख दलाई लामा पर लिख रहा हूँ अतः इसके परिपेक्ष में भी जाना आवश्यक है कि चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो(वर्तमान)
तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष थे और इन्हें आध्यात्मिक गुरू भी लोग मानते हैं। उनका
जन्म 6 जुलाई 1935 को उत्तर-पूर्वी तिब्बत के ताकस्तेर क्षेत्र में रहने वाले येओमान
परिवार में हुआ था। दो वर्ष की अवस्था में बालक ल्हामो धोण्डुप की पहचान 13वें दलाई लामा थुबटेन ग्यात्सो के
अवतार के रूप में की गई। दलाई लामा एक मंगोलियाई पदवी है जिसका मतलब होता है ज्ञान
का महासागर और दलाई लामा के वंशज करूणा, अवलोकेतेश्वर
के बुद्ध के गुणों के साक्षात रूप माने जाते हैं। बोधिसत्व ऐसे ज्ञानी लोग होते
हैं जिन्होंने अपने निर्वाण को टाल दिया हो और मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म
लेने का निर्णय लिया हो।
दलाई
लामा(तेनजिन ग्यात्सो) ने अपनी मठवासीय शिक्षा छह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ की ।
23 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1959 के वार्षिक मोनलम, प्रार्थनाद्ध उत्सव के दौरान उन्होंने
जोखांग मंदिर, ल्हासा में अपनी फाइनल परीक्षा दी।
उन्होंने यह परीक्षा ऑनर्स के साथ पास की और उन्हें सर्वोच्च गेशे डिग्री
ल्हारम्पा, बौध दर्शन में पी. एच. डी. प्रदान की
गई ।
वर्ष
1949 में तिब्बत पर चीन के हमले के बाद
दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें । 1954 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से
बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गए । लेकिन आखिरकार वर्ष 1959 में ल्हासा में चीनी सेनाओं द्वारा
तिब्बती राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचले जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को
मजबूर हो गए । इसके बाद से ही वह उत्तर भारत के शहर धर्मशाला में रह रहे हैं जो
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय है । तिब्बत पर चीन के हमले के बाद दलाई
लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की और संयुक्त
राष्ट्र महासभा द्वारा इस संबंध में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव पारित किए जा चुके
हैं और चीन ने तिब्बत में दमन जारी रखा और संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्तावों
की अनदेखी भी की ।
1963 में दलाई लामा ने तिब्बत के लिए एक
लोकतांत्रिक संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया। मई 1990 में दलाई लामा द्वारा किए गए मूलभूत सुधारों को एक वास्तविक
लोकतांत्रिक सरकार के रूप में वास्तविक स्वरूप प्रदान किया गया । दलाई लामा द्वारा
नियुक्त होने वाले तिब्बती मंत्रिमंडल और दसवीं संसद को भंग कर दिया गया और नए
चुनाव करवाए गए । निर्वासित ग्यारहवीं तिब्बती संसद के सदस्यों का चुनाव भारत व
दुनिया के 33 देशों में रहने वाले तिब्बतियों के एक
व्यक्ति एक मत के आधार पर हुआ। धर्मशाला में केंद्रीय निर्वासित तिब्बती संसद मे
अध्यक्ष व उपाध्यक्ष सहित कुल 46
सदस्य हैं ।
1992 में दलाई लामा ने यह घोषणा की कि जब
तिब्बत स्वतंत्र हो जाएगा तो उसके बाद सबसे पहला लक्ष्य होगा कि एक अंतरिम सरकार
की स्थापना करना जिसकी पहली प्राथमिकता यह होगी तिब्बत के लोकतांत्रिक संविधान के
प्रारूप तैयार करने और उसे स्वीकार करने के लिए एक संविधान सभा का चुनाव करना।
इसके बाद तिब्बती लोग अपनी सरकार का चुनाव करेंगे और दलाई लामा अपनी सभी राजनीतिक
शक्तियां नवनिर्वाचित अंतरिम राष्ट्रपति को सौंप देंगे। वर्ष 2001 में दलाई लामा के परामर्श पर तिब्बती
संसद ने निर्वासित तिब्बती संविधान में संशोधन किया और तिब्बत के कार्यकारी प्रमुख
के प्रत्यक्ष निर्वाचन का प्रावधान किया ।
1987 में दलाई लामा ने तिब्बत की खराब होती
स्थिति का शांतिपूर्ण हल तलाशने की दिशा में पहला कदम उठाते हुए पांच सूत्रीय
शांति योजना प्रस्तुत की। उन्होंने यह विचार रखा कि तिब्बत को एक अभयारण्य-एशिया
के हृदय स्थल में स्थित एक शांति क्षेत्र में बदला जा सकता है जहां सभी सचेतन
प्राणी शांति से रह सकें और जहां पर्यावरण की रक्षा की जाए। लेकिन चीन परमपावन
दलाई लामा द्वारा रखे गए विभिन्न शांति प्रस्तावों पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया
देने में नाकाम रहा ।
पांच
सूत्रीय शांति योजना :
21 सितम्बर,1987 को अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को
सम्बोधित करते हुए परमपावन दलाई लामा ने पांच बिन्दुओं वाली निम्न शांति योजना रखी
गई :-
समूचे
तिब्बत को शांति क्षेत्र में परिवर्तित किया जाए।
चीन
उस जनसंख्या स्थानान्तरण नीति का परित्याग करे जिसके द्वारा तिब्बती लोगों के
अस्तित्व पर खतरा पैदा हो रहा है।
तिब्बती
लोगों के बुनियादी मानवाधिकार और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का सम्मान किया जाए।
तिब्बत
के प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण व पुनरूद्धार किया जाए और तिब्बत को नाभिकीय
हथियारों के निर्माण व नाभिकीय कचरे के निस्तारण स्थल के रूप में उपयोग करने की
चीन की नीति पर रोक लगे।
तिब्बत
के भविष्य की स्थिति, तिब्बत व चीनी लोगों के सम्बंधो के
बारे में गंभीर बातचीत शुरू की जाए ।
दलाई
लामा पर आरोप :
उपरोक्त
में जो मैंने लिखा है जो की अब तक प्रचारित है प्रत्युत दलाई लामा पर भी आरोप भी
लगते रहे हैं जैसे चीन की कम्युनिस्ट सरकार आरोप भी लगा चुकी है कि तिब्बत के
आध्यात्मिक नेता दलाई लामा और उनके समर्थक चीन में रहने वाले तिब्बती बौद्धों के
आत्मदाह को प्रोत्साहित कर रहे हैं जो एक तरह का आतंकवाद है ।
चीन
के विदेश मंत्रालय ने यह भी कहा था कि दलाई लामा और उनके समर्थकों ने चीन के
दक्षिण पश्चिमी हिस्से में तिब्बती बौद्धों के प्रदर्शनों को उकसाया है जिनमें
नाटकीय रूप से बढ़ोत्तरी हुई है ।
चीनी
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जियांग यू ने पत्रकारों को बताया था कि चीनी इलाक़ों
में होने वाली इन घटनाओं की तिब्बत की स्वतंत्र सेनाओं और दलाई लामा और उनके
समर्थकों ने कोई आलोचना नहीं की है बल्कि इसके उलट उन्होंने आत्मदाह की घटनाओं को
ना सिर्फ़ महिमामंडित किया है बल्कि और भड़काया है ।
प्रवक्ता
ने कहा था कि सभी जानते हैं कि मानवीय जीवन की क़ीमत पर इस तरह की विघटनकारी
गतिविधियों को बढ़ावा देना एक तरह की हिंसा और आतंकवाद ही कहा जाएगा ।
दलाई
लामा आत्मदाह के चलन की निंदा करते रहे हैं क्योंकि ये बौद्ध धर्म की मान्यताओं के
विपरीत है दूसरी तरफ वो अंदरूनी रूप से बढ़ावा देते हैं तो ये कौन सा बौद्ध धर्म
है ।
दलाई
लामा रहते तो भारत में हैं और उनकी निर्वासित सरकार को चलाने एवं सुरक्षा देने में
भारत सरकार काफी राशि खर्च करती है, लेकिन कभी भी दलाई लामा ने इस्लामिक
आतंकवाद, चर्च द्वारा पोषित आतंकवाद या अलगाववाद
और कश्मीर पर भारत के रुख का समर्थन नही किया ।
भारत
का सहिष्णु हिन्दू समाज कभी भी अपने आपको बौद्धों से अलग नहीं मानता है लेकिन दलाई
लामा ने कभी भी अपने आपको हिन्दुओं का अंग नही कहा उसके विपरीत स्वयं भगवान बुद्ध ने तिपिटक में कहा है कि
उनका ही पूर्व जन्म राम के रूप में हुआ था । अतः श्रीराम को मानने वाले सनातन
धर्मी लोग और बुद्ध को मानने वाले बुद्धिस्ट लोग हिन्दू ही कहलायेंगे ।
श्रीलंका
के बुद्धिस्ट संगठन “बोडू बाला सेना” के बौद्ध भिक्षुओं ने दलाई लामा को
विश्व का बौद्ध गुरु मानने से इनकार कर दिया था और उन भिक्षुओं ने यह भी कहा है की
पश्चिमी देश ही दलाई लामा को बौद्धों का नेता या गुरु मानते हैं लेकिन अन्य बौद्ध
राष्ट्र या भिक्षु नहीं ।
भारत
की चीन और तिब्बत पर नीति :
अब
समय आ गया है की भारत सरकार तिब्बत, भारत
में रह रहे तिब्बती नागरिकों को लेकर उनके भविष्य को देखते हुए, दलाई लामा एवं चीन की भूमिका पर स्पष्ट
नीति बनाए और कांग्रेस द्वारा स्थापित खोखली नीति को उखाड़ फेंके और चीन पर दबाब
बनाकर चीन से कहे की तिब्बतियों को आंशिक न्याय दे, कश्मीर पर चीन भारत का समर्थन करे या चीन पाकिस्तान से कश्मीर पर
दूरी बना ले । भारत चीन विरोधी गतिविधियो का अड्डा ना बनें क्योंकि दलाई लामा का भी रुख पूर्ण रूप से
भारतीय नही रहा है । भारत में ही तिब्बत की निर्वासित सरकार द्वारा
मैक्लोडगंज-धर्मशाला, जिला कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश से तिब्बती लोगों के लिए
पासपोर्ट जारी किया जाता है और अब चीन ने भी कश्मीर के लोगों को नत्थी वीसा देना
प्रारंभ कर दिया था जिसे लेकर भारत में काफी हो-हल्ला हुआ था ।
भारत
के हित में यही है की अब दलाई लामा को ज्यादा ढोना उचित नहीं है या दलाई लामा भी
अपना रुख स्पष्ट करें ? चीन तिब्बत को छोड़ेगा नहीं और हम कब तक
दलाई लामा को समर्थन देते रहेंगे और कश्मीर के हित में भी एक बार चीन से दो टूक
बात कर लेनी चाहिए । भारत को पश्चिमी
देशों की अंधी दौड़ में शामिल होना नही होना चाहिए, बात रही तिब्बत के बौद्धों की तो उस पर चीन को मनाया और समझाया जा
सकता है यदि चीनियों में मानवीय संवेदनाएं हैं ।
लेखक
हिन्दू महासभा के वरिष्ठ नेता एवं फिल्म निर्माता हैं ।
( Website :
www.drsantoshrai.in, Email : drsrai@yahoo.com )
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